Monday, 28 May 2012

ये फासलें..एक आफत



उसकी याद बेवक्त ,
दिल के हर दर्द जगा देती है...
मेरे वजूद मेरी हकीकत से ,
एक फासला बना देती हैं...
मैं चाहे जाऊं जिधर ,
वो अपना करवा बना लेती हैं...
जरूरतें भी जाने ,
कैसी ये आदत बना देती है...
सांसें है ,मगर पल पल में दम घुटता है . . . . !
किसी के आने की आहट भी,
एक आफत बना देती हैं...


ये फासलें..हाथों की रेखा हैं...



कुछ तक़दीर जुडी है उससे
हाथों में मेरे... उसके हाथों की रेखा हैं..

कुछ उम्मीद सी लगी है उससे

बिन मेरे मैंने उसे तड़पते हुए देखा हैं ...
कुछ डोर सी बंधी है उससे
राहो में मैंने ..अक्सर मेरे पीछे चलते देखा हैं
कुछ फासलें हो चुके है उससे
खवाबों में भी ...मैंने बस उसी को देखा है..

कुछ तक़दीर जुडी है उससे
हाथों में मेरे... उसके हाथों की रेखा हैं.

फासलों से दोस्ती



तनहा बैठकर ..... मैं, एक बात हूँ सोचती
क्यों न कर लूं , इन फासलों से दोस्ती..

इन्ही के साथ रहना है

इन्ही के साथ चलना हैं..
ये फासलें वो फासलें है
जिनका कोई हल न हैं ...

"गम की शाम का ,कभी सवेरा नहीं होता
फासलों की सुबह का ,कभी अँधेरा नहीं होता.. "

नींद में उठकर . . . . बार बार हूँ सोचती
क्यों न कर लूं , इन फासलों से दोस्ती..
इन फासलों से दोस्ती.. . . . . !


ये फासलें..खाली जहां ---



ये कैसा सबक दिल-ए-नादाँ का हैं ,
इस सूनेपन में किसका निशान सा हैं...
जुदा होके मुझसे भी जुदा नहीं होता,
चारो और फैला मेरा आसमा सा हैं...
करवटों में बेचैनियों का इम्तेहान सा है,
दूरियों में भी करीब ,कैसा वो मेहरबान सा हैं..
इन फासलों में महफ़िल का शोर अनजान सा हैं,
सबकुछ है मगर..लगता खाली-खाली क्यूँ ये जहां सा हैं..


ये फासलें..बदल जाते हैं


हर मोड़ पे उसके, साए मिल जाते हैं ...
जाने किस आस पे, कदम निकल जाते हैं ...
कुछ फासलों तो ,कुछ बेचैनियों का तोहफा दे जाती हैं जिंदगी ,
कौन कहता हैं.. लोग यु ही बदल जाते हैं...

अंधेरो में कभी.. मुसाफिर मचल जाते हैं..

ठोकरों के बाद ही अक्सर... राही संभल जाते हैं..
कुछ मोहब्बत तो.. कुछ मायूसियों का तोहफा दे जाती हैं जिंदगी,
कौन कहता हैं लोग यु ही बदल जाते हैं...

'उसके नाम से '


वाकीफ नहीं थी ...इस इश्क, के अंजाम से
सुने मोहब्बत के बड़े ,मैंने इंतकाम थे ...
अपने ही शेहेर में पाया,मैंने उस राही को,
जिसके लिए सजे.. प्यार के बड़े गुलिस्तान थे ....
लाख बचाया था.. दामन, जिसके इल्जाम से,
सारे जहां में मशहूर हूँ ,अब मैं 'उसके नाम से '. . . . . !!

ये फासलें..सदियों से




आसमा से जमी का कैसा रिश्ता लगने लगा ,
उसी हमसफ़र से, अजनबी वास्ता लगने लगा ,
थक गयी हूँ ,उसकी यादों को मिटातें-मिटातें
तन्हाई में ये साथ किसका लगने लगा..

पलकों का नमी से, कैसा रिश्ता लगने लगा ,

ख्वाबों का जंजाल आँखों को सस्ता लगने लगा ,
क्या केह दू..किस मुकाम पे हूँ..
सदियों-सा इन फासलों का रस्ता लगने लगा . . . . . . .


ये फासलें..सरहद नहीं !


सतरंगी श्रृंगार किये, कई कहानियां आस-पास है,
सादगी में लिपटी ,यूँ ही कुदरत नहीं होती...
ख्वाबों के झिलमिलाते तारे भी यहाँ से दिखते हैं,
इस जमी से बेहतर ..दूसरी कोई, जन्नत नहीं होती..!

माना फासलों ने कुछ सीमाएं खींच दी हैं,

करीब आने के लिए, मुलाकातों की जरूरत नहीं होती
जिन्हें मिलना है... वो मिल के ही रहते हैं,
खुले आसमा की.... कोई सरहद नहीं होती... !


कुछ ख़ास...रिश्ता है ...


ठहेरता है मेरे लिए ..वो, जब वक़्त नहीं रुकता..
यूँ ही जमी के आगे, अस्मा नहीं झुकता,
कुछ तो ख़ास...रिश्ता है मुझसे उसका ..

फ़ासलों से भी.. उस चेहरे का अक्स नहीं मिटता ..

महफिलों के मेले हैं,हर जगह वही है दिखता,
कुछ तो ख़ास... रिश्ता है मुझसे उसका ..

उसके एहसानो का मुझसे,अब क़र्ज़ नहीं चुकता..
मेरे ख्वाबों का ख्याल, बस वही है रखता,
कुछ तो ख़ास... रिश्ता है मुझसे उसका ....

ये फासलें.."करार नहीं है"


मुड-मुड़ के हर राह में ताका हैं उसे,
कैसे कह दू के उसका इंतज़ार नहीं है ..
सावन में भी,बारिश की बहार नहीं है..
कैसे कह दू के, उससे प्यार नहीं हैं..

जिंदगी के आईने का इस तरफ दीदार नहीं हैं..

लफ्ज़ नहीं कभी तो,कभी इकरार नहीं है..
ये फासलें... क्यों लिख दिए तक़दीर ने,
बिन उनके एक पल को करार नहीं है..



ये फासलें..." अनजान आहें "


क्या हुआ हैं मुझे ?
क्यूँ अनजान आहों से मजबूर हूँ...
खाली राहो में टिकी है नजरे,
जाने किस आस पे मशगूल हूँ..
बहूत करीब हूँ उसके,
जिससे में मीलों दूर हूँ..
वक़्त से न बदले जो
मैं एक ऐसा उसूल हूँ..
नहीं खफा में औरों से
क्यूँ कहते है सब की मैं मगरुर हूँ..
फासलों का करतब है सब
गहरे समंदर वाले ,आँखों का नूर हूँ..
चारो तरफ है तनहाइयाँ
अंधेरों में गम के..किसी की यादों में चूर हूँ..
क्या हुआ हैं मुझे?
क्यूँ अनजान आहों से मजबूर हूँ



ये फासलें..." इतिहास दोहरा गए ! "



कब हम जाने इन मंजिलो पे आ गए . . .
होता है क्या प्यार, वो चदं लफ्जों में समझा गए !
बेजुबा बना रहना, जब अच्छा लगने लगा . . .
लाखों दफा, वो हमको आजमा गए !
कदमो को काबू कर आज रास्ते मोड़ लिए उनसे . . .
ये फासलें,फिर से इतिहास को दोहरा गए !
गुज़ारिश थी.. खुदा से के फिर ये सामना हो . . .
और राहो में आके ,वो मुझसे टकरा गए !


ये फासलें ... " ख्वाब की इमारत "


हकीकत को अब अपनाना छोड़ दिया..
ख्वाबों की इमारतों पे अब घर बनाना छोड़ दिया..
"ताश के पत्तो का महेल कब पल भर थमा हैं ? "
दो लम्हों के मुसाफिरों से रिश्ता बनाना छोड़ दिया..
मुनासिब नहीं था उस मेहेरबा को समझाना
देखकर मुस्कुराना,करीब आना छोड़ दिया..
ख्वाबों की इमारतों पे अब घर बनाना छोड़ दिया..


" समंदर से गहरा,काँटों का पहरा ,ये सफ़र हैं
मंजिलो से भी आगे,जिसकी गुजरती , कोई डगर हैं..
न साथी है कोई न कोई हमसफ़र हैं..
साये कई दिखते हैं,पर "वो" किसकी नज़र है?
कैसे ये सिलसिले,किसके ये काफिले है..
क्यूँ हमारे दर्मिया ...ये फासलें हैं..ये फासलें हैं.. !!!!!!"




 

Wednesday, 2 May 2012

ख़ामोशी की चीख ..


आज मैंने, मेरे ख्वाबों की दुनिया से निकल के देखा..
हसी की किलकारी गूंजी ,सोचा खुल के जियूंगी आज हर लम्हा..
मुझे थी शिकायत की " मेरे साथ क्यों अच्छा नहीं होता.. "?

हर तरह के लोग बसते हैं इस नगर में,

जिन्हें काम के शिवा,किसी की परवाह नहीं,
वो नन्हे फूल जिन्हें पैरो तले ,जिंदगी ने कुचल कर जीना सीखा दिया हैं..
... बेजुबा बने ,वो बुजुर्ग जिनका दर्द कोई नहीं सुनता,
खुद उनके अपने भी नहीं ?
उन औरतों के आँखों के आसूं अब नहीं थमे,
पर वो अपनी पीड़ा किससे कहे ?
घर से लडकियां निकलने से डरती है
क्यूँ इतना खौफ हैं..?
क्यों इतना मौन हैं..?
हर आँखों में एक शिकंज थी ..
उनकी खामोशियों की चीख़े मैंने सुनी,
शेहेर के शोर में कुछ दब सी गयी हैं,उनकी आवाजे कहीं..

ये नजारा ताकते हुए मैंने सोचा..

" थी अकेली पर पिंजरे की बाहों में मेहफूस तो थी
आज पता चला दुनिया कितनी बड़ी हैं,
कई अनजाने रास्ते हैं
कई कठिन मोड़ हैं
और साथ ..........................साथ कोई नहीं..!!!!! "



 

अनकही उलझन



कभी कसमों तो कभी वादों से डर लगता हैं
निहार के आस्मा की ऊचाईयों को..छूने का दिल करता हैं !
हैं तमन्ना वो खुद ही एक दफा पहेल करे..
कभी ख्यालों,तो कभी अनकहीं उलझनों से डर लगता है !
कैसे रफ़्तार है पल की ,क्यों अब ये थम जाता नहीं ....
कभी जुदाई तो कभी इस तनहाइयों से डर लगता है..
क्या जाने क्या है.. इन मौसमों की सजा

कभी हवाओ तो कभी परछाइयों से डर लगता हैं..
ख्वाब देखने का हुनुर इस आँखों से जाता नहीं
कभी नादानियों तो कभी कहानियो से डर लगता है..


ये फासलें -- "एक कमी "



मुस्कुराके भी आँखों में नमी सी होती हैं
इन महफ़िलो में भी एक कमी सी होती है
सावन में जैसे बंज़र जमी सी होती हैं
मुस्कुराके भी आँखों में नमी सी होती हैं..

बदल के रास्ते भी,नज़रें उसी पे थमी सी होती हैं,

उसकी यादों की धुन में,सांसें भी रमी सी होती हैं..
इन महफ़िलो में भी एक कमी सी होती है
मुस्कुराके भी आँखों में नमी सी होती हैं




 

ख्वाबों का जहाँ ....


ख्वाब के जैसा,मैंने कभी जहान ना पाया..
सुकून एक पल को,न इस दिल नादान को आया,
वक़्त को ठहरा दे,कायानात को बदल डाले ..
बनके दिल के जेहेन में, कभी "वो "अरमान ना आया 




ख्वाब के जैसा,मैंने कभी जहान ना पाया..
सैलाब था गम का,नज़र में जिसे कोई जान ना पाया..
किस तरह ले लेते शर-ए-बाज़ार नाम उसका,
जिस शख्स को मेरी कविता में कोई पहचान न पाया..


कोई क्या समझे ..


जागती आँखों में भी कई ख्वाब है आते ,
कोई क्या समझे इस मन के रिश्ते और नाते..
वही करते है प्यार,जो सबसे ज्यादा है सताते,
कोई क्या समझे इस मन के रिश्ते और नाते..

आसुओं को वजह देकर फिर मानाने हैं आते

कोई क्या समझे इस मन के रिश्ते और नाते..
वही करते है तकरार,जो सबसे ज्यादा है चाहतें,
कोई क्या समझे इस मन के रिश्ते और नाते..


 

ये फासलें ...


दूरियों की परवाह,फासलों से गिला नहीं करते...
एक दूजे को देखकर सुकून पा लेते हैं,
औरों की तरह कहीं पे मिला नहीं करते...
बदनामियों के नाम से तो बुजदिल डरा करते हैं,
यूँ ही काँटों पे फूल खिला नहीं करते..


अनकहा अफसाना ..



प्यासी लहेरे ..झुकी - झुकी सी ये नज़र हो गयी हैं...
मेरे अनकहे अफसाने की.. सबको खबर हो गयी हैं..
क्यों तड़प थी बिन उनके,धड़कन भी बेखबर हो गयी है..
डूबा मन नजरों के सागर में...दीवानगी भी इस कदर हो गयी है..

मेरे अनकहे अफसाने की.. सबको खबर हो गयी हैं..
"उससे ही हैं मतलब उसी से वास्ता हैं..
वो ही हैं मंजिल, वो ही मेरा रास्ता है..:"
जागता हूँ रोज नए एहसास से,ख्वाबों में उसकी ही बसर हो गयी है..
मेरे अनकहे अफसाने की.. सबको खबर हो गयी हैं ..




बदसुलूकी