शक ने करवट ले ली थी,
गलतफेमियां सर चढ़ी थी
बेपाक हूँ
नादानी करती हूँ
पसंद हो या न पसंद
मनमानी करती हूँ
मेरे इस रुतवे को
उसने बेइंतेहा कबूल किया
ये उसका बड़प्पन था,
कीमत क्या बताऊ उस लम्हे की
उसमें गुजरा जैसे बचपन था .
सीखा जब खफा होना
लाजमी था जुदा होना
जिंदगी जैसे ढेर हो चुकी थी
आते क्या जब देर हो चुकी थी
भीगे है ख्वाब ,पलकों में सबर नहीं
इस और बड़ी तड़प है,उस और की खबर नहीं
वो नहीं है तो ,मैं भी नहीं हूँ
हूँ यहाँ मैं, यहाँ भी नहीं हूँ
राहें जिससे बार बार मिल जाती थी
लौट के कभी मुझ तक मुड़ जाती थी
वीरानो में
खुद को होते जा रहे है
फैसलों से भी
बड़े फ़ासलें होते जा रहे है
वो हैं अडिग ,
ओर मैं हठी हूँ
काश ये "अहम " रिश्तों में एहम नहीं होता


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