Wednesday, 11 January 2012

अनकही उलझन ... 3




सनसनाती हवाएं,नीले सागर की लेहेरें और आकाश में उड़तें आज़ाद से पंछी... अपने घर लौट रहे हैं, मैं हूँ बेसुक सी इस अनजान से जाने हुए शेहेर में,जैसे मैं कोई आशियाना ढून्ढ रही हूँ,अरे ! नहीं मेरा मतलब ये था की मैं मेरी मंजिल की तलाश कर रही हूँ.

अपनी रोजी रोटी के लिए घास काटते लोग देखे,पास की दीवार पे दो प्यार करने वालों का नाम,तो कहीं अपने साथियों के साथ मौज करता हुआ ग्रुप देखा,उन्हें देखते ही एक पल को मुझे मेरे दोस्तों की याद आ गयी,आजकल समय ही नहीं दे रही हूँ उनको जाने किस धुन में रहती हूँ ,कुछ देर वहाँ ओर बैठी मैं और गहरे पानी को निहारने लगी,सोचते-सोचते मैं ये सोचने लगी की ,इतने प्यारे से माहोल में आके किसी का मरने का मन कैसे हो सकता हैं?



आपके अन्दर अगर अच्छी सोच हैं,तो आप अच्छा ही करोगे.मुझे तो यहाँ आकर ऐसा लग रहा था,जैसे मुझे किसी ने यादों और खवाबों की किताब दे दी हो,पर मेरी मम्मा सच कहती हैं ,"बड़ा तालाब सबको अपनी ओर खीचता हैं "
मुझे भी खीचा,एक गहरी दुनिया के आलम में ले गया जहाँ मुझे भी मेरी खबर नहीं थी,जैसे मेरे ख्वाबों का जहाँ मेरे सामने था.
तभी मेरे कंधे में किसी ने हाथ रख दिया.(मुझे लगा पापा होंगे,वो कॉल में busyथे )
मेरा ध्यान बट सा गया,चारों ओर देखा कोई नहीं था,पर कोई तो हैं कहीं...जिसे मेरी इतने गहरी सोच में खोये रहना पसंद नहीं..(मेरे दोस्त भी मुझसे यही कहते हैं की ज्यादा सोचा मत कर)

ये सोचकर मैं अपनी पसंदिता जगह से बेमन से कार में आके बैठ गयी,पर मेरी नज़र को जैसे इस झील ने एक बंधन बाँध लिया था ..




                                 "   क्या सोच कर फिर हम इन किनारों पे आ गए..
                                   बड़ी अनकही बातें लिए यादों के शिकारों पे आ गए..
                                    जो ठहर गए वो उलझनों में  जा डूबे,
                                 जो उबर गए वो माझी के इशारो पे आ गए.."









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बदसुलूकी