कहते कहते कभी मैं खामोश हो जाती हूँ , उससे छुपकर .............
खुद की परछाइयों से डर जाती हूँ
कसूर मेरा नहीं उसका है ..
" जो शोर बनके मेरे कानो में गूंजता है
मैं उसकी बातो में खुद को भूल जाती हूँ "
वो क्यों गेरो की तरह मिलता है?
उसकी आहटों से टकराकर ,खुद को को तनहा कर जाती हूँ..
" क्या लिखा था तक़दीर में खुदा राज़ बताना भूल गया
उसका हर लफ्ज़ बिना कहे पढ़ लेती हूँ ,शायद वो मुझसे छुपाना भी भूल गया "
" ख़त लिखू किस तरह ,कोरे कागजों में, मैं ग़ज़ल बनती हूँ ..
किन शब्दों में क्या बात लिख दूं ,समझ नहीं पाती हूँ ... "
कसूर मेरा नहीं उसका है..?
वो क्यूँ इतना खामोश रहता है..
उसके ख्यालों से टकराकर,किन्ही राह में उससे मिल जाती हूँ.


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