Friday, 6 December 2013

ये फ़ासले....


ये तो फितरत है "लेहेर" कि ..
किनारो से मिलकर, साहिल के कदमो को , भिगो देने की ..
मैं स्थिर तो नहीं ..
पर मर्यादा रखती हुँ , अपनी इस देहलीज़ तक
उसको आना होगा , तो आयेगा ...
सूरज कि तपन से ,
सगर भी अब जल चले …
तब से अब तक ,कम न हुए जरा से
ये फासलें... ये फ़ासले....



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बदसुलूकी