Wednesday, 26 August 2015

खामोश हूँ



Pot-151* 

खामोश हूँ की मैं अपनों को रंग बदलते देखती हूँ
शोर तो स्थिर समंदर की लेहरे भी करके वही रह जाती है ,
खामोश हूँ की मैं सुबह सूरज उगते तो शाम उसको डूबते देखती हूँ
मौन और मुस्कान कहते है कवि,है इंसान के श्रृंगार ,
खामोश हुँ की मैं वक़्त के हर लहज़े समझती हूँ
हाँ है ज़िद और मंज़िल को खुद तक मोड़ने की चाह भी ,
खामोश हूँ की सबकी सोच में खुद को खोने से ड़रती हूँ
अंजनी राह में चलने का हौसला भी है और अडिग फैसला भी ,
खामोश हूँ की मैं खुद से ही खुद को रोज परखती हूँ  
खामोश हूँ की....मैं अपनों को रंग बदलते देखती हूँ



बदसुलूकी